कांग्रेस मुख्यालय में पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा कि मेरे अनुसार बिल्कुल भी अच्छे इरादे नहीं हैं। बद इरादे हैं। लेकिन अच्छे इरादे भी मान लीजिए तो वो कहावत याद है आपको, The path to hell is paved with good intentions. तो अच्छे इरादों के आधार पर कहीं नरक में तो नहीं खींच लें, हमारे संवैधानिक ढांचे को। ये अतिआवश्यक है सोचना। आज कहाँ लिखा है हमारे संविधान में या हमारे संविधान को छोडिए हमारे इतने उच्च विवेक के, इतने वाईज लोग, तीन वर्ष बैठे थे 46 से 49 तक, संविधान सभा में, उन्होंने कभी ये कहा by force and compulsion एकसाथ चुनाव होना चाहिए। हम सब चाहते हैं, मैं भी चाहता हूं, उसमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन ये जो बात हो रही है, वो संवैधानिक compulsion से, बिना कोई संवैधानिक विकल्प के अनिवार्य रुप से चुनाव होना ही चाहिए। एक ही बार, एक ही साथ। तो ये हमारे संविधान निर्माताओं ने कभी क्यों नहीं सोचा? क्या आप उनसे ज्यादा विवेकशील हैं, ज्यादा ज्ञानी हैं, ज्यादा समझदार हैं?
संविधान ये नहीं है कि आपने यहाँ पर जाकर दर्जी की तरह इनके कंधे के ऊपर कोई सिलाई कर दी, इस कंधे की सिलाई के लिए शर्ट पर वहाँ भी सिलाई करनी पड़ती है, नीचे पेंट पर भी सिलाई करनी पड़ेगी, 10 करेंगे सिलाई आप, संविधान पर कहाँ आपके दो तिहाई बहुमत है। एक बड़ा रोचक कारण दिया जाता है, खर्चे का।
तो ये घडियाली आंसू खर्चे के ऊपर कोई जमते नहीं हैं आपको, आप पर विश्वास कोई नहीं करता है, इस पर, ये बहुत घडियाली लगते हैँ। ये बहुत आडंबर से ओत-प्रोत लगते हैं। आज सच्चाई ये है कि ये शब्द, ये वाक्य एक देश, एक चुनाव जिसका सही अनुवाद वास्तव में होना चाहिए, एक साथ चुनाव, जिसको जुमला बनाया गया है, ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’।
इसके अंदर कोई substance नहीं है, ये कोई शगूफा फेंका गया है, कुछ अस्थिरता पैदा करने के लिए, कुछ हलचल पैदा करने के लिए। ये सरकार हलचल की सरकार है। हर दिन एक नया-नया जुमला, हर दिन नई हलचल होनी चाहिए। हमें आजतक इन 5 महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला, इस प्रकार के 10-15 और प्रश्न हैं हमारे पास।
क्या सैद्धांतिक रुप से, संवैधानिक रुप से, नीतिगत रुप से, कानूनी रुप से ये जुमला नंबर एक, हमारे देश के संघीय ढाँचे का आदर करता है?
क्या ये हर व्यक्ति विशेष के वोट का आदर करता है?
आज कभी भी आपके प्रतिनिधी जो संसद में या ऐसेम्बली में हैं, वो किसी को अविश्वास मत में हटा सकते हैं। क्या उस अविश्वास मत का जो किसी भी गणतंत्र, लोकतंत्र के नींव की हड्डी होती है, ये सुझाव आदर करता है?
क्या ये सुझाव एक तौर-तरीका नहीं है इस देश को लंबे समय के लिए राष्ट्रपति शासन में रखने का?
क्या ये हमारे संघीय ढांचे के विरुद्ध है, क्या हमारे संवैधानिक spirit के अनुकूल है?
क्यों हमारे इतने ज्ञानी और विवेकशील निर्माताओं ने इसको अनिवार्य नहीं बनाया? जैसा मैंने कहा कि हमें बहुत हर्ष होता और हुआ इस देश में 15 वर्ष तक कि एक साथ चुनाव हुए। लेकिन आज इसकी बात नहीं हो रही है, अगर अपने आप spontaneous तरीके से स्थिरता ज्यादा आती है, बहुमत ज्यादा आते हैं, 5-5 वर्ष सरकार चलती है, तो अच्छी बात है। आज हमारा डिबेट इस विषय पर नहीं है। आज है अनिवार्य रुप से, बाध्य रुप से, संवैधानिक डंडे के रुप से। क्या आप पूरे देश में एक साथ चुनाव करवा सकते हैँ? ये हमारे निर्माताओं ने कभी भी नहीं सोचा, ना संविधान में डाला और क्या लगभग 10 से 20 ऐसे संवैधानिक संशोधन जो अनिवार्य होंगे, इस प्रकार के प्रस्ताव के लिए, उसके लिए आपने कोई भी सहमति बनाने का प्रयत्न भी किया है, सहमति बनाने का प्रयत्न तो छोड़िए, सहमति है क्या इसके लिए? क्या आप दो तिहाई से संविधान संशोधन करेंगे, एक बार नहीं, पाँच बार नहीं, दस बार या दस संविधान के अंगों में? और पूरा देश दोनों सदन मान लेंगे या तैयार हैं। किसी ने कहा था कि लोकतंत्र शायद सबसे गलत तरीका है शासन करने का, लेकिन जो भी विकल्प है, उनमें सबसे बेहतर है।
तो लोकतंत्र में ये अनिवार्य है कि कभी भी कुछ हो सकता है आपके समर्थन को, उस समर्थन को आप ऑर्टिफिशियल तरीके से, संविधान को संशोधन करके नहीं बना सकते, अगर ये करेंगे तो ये एक तानाशाही होगी, संवैधानिक नाम दिया जाएगा, होगी तानाशाही। बद इरादा है, इरादा अच्छा नहीं है, अगर इरादा अच्छा होता तो भी वो एक अंग्रेजी की कहावत लागू होती, Path to hell is paved with good intentions.
इसलिए मैं समझता हूं कि बार-बार इस शब्द का प्रयोग करना, बिना ये बताए कि इसका स्वरुप क्या है, इसके तथ्य क्या हैं, इसके आधार क्या हैं, ये कैसे होगा, इसके एलिमेंटस क्या हैं? ये पूरे देश को बरगलाने और मूर्ख बनाने की प्रक्रिया है।
एक प्रश्न पर कि क्या यही वजह है कि कांग्रेस पार्टी ने लॉ कमीशन के द्वारा जो बैठक बुलाई गई थी, उसका बायकॉट किया, डॉ. सिंघवी ने कहा कि मैं बायकॉट शब्द का प्रयोग नहीं करुंगा, यह आपका शब्द है। हमारे विचार इसके विषय में कुछ हद तक पहले से ज्ञात है, हमने लिखित में दिये हैं और कोई औचित्य नहीं होता जाके उन्ही विचारों को वापस व्यक्त करने का, हमारे विचार सर्वविदित हैं। हमने लिखकर भी दिये हैं। मैं भी उसमें भागीदार रहा हूँ, पहले, इसलिए इसमें कोई नई बात नहीं कह रहे है आप किसी चीज को बोलते है उसके अंदर क्या दम है उसमें क्या Need है उसमें क्या Flash है उसमें क्या अंदर घुसा हुआ है।
एक अन्य प्रश्न पर कि लॉ कमीशन ने कहा है इस पर कांग्रेस का कोई रिकमंडेशन भी नहीं आया है, डॉ. सिंघवी ने कहा कि हमने पहले चुनाव आयोग को दिया था, लेकिन हम अभी नहीं गए हैं। बात सही है। इसलिए मैंने कहा कि हमारा स्टैंड इस पर सर्विदित है, पहले से चुनाव आयोग को दिया गया है, इसलिए सब जानते हैं हमारा स्टैंड।
एक अन्य प्रश्न पर कि लोकसभा अध्यक्ष ने सभी सदस्यों को पत्र लिखकर कहा है कि इस मानसून सत्र में हंगामा ना करें, डॉ. सिंघवी ने कहा कि आपके प्रश्न में कई सारे एसम्जशन (assumption) हैं, जो गलत हैं। निश्चित रुप से ऐसे उच्च ख्याल होने चाहिए सत्र के शुरुआत में। लेकिन अगर मैं आपको याद दिलाऊँ तो पिछले सत्र का उदाहरण लें, हमने एक मुद्दा जरुर उठाया शुरु में, उस मुद्दे के दो दिन के बाद सत्तारुढ़ पार्टी और उनसे सांसदों ने पूरे सत्र को नष्ट किया, ये आपके कैमरों में हैं, ये हमारे आरोप हैं, ये प्रेस में हैँ। तो सिर्फ मैं इतना कहूंगा, बहुत आदरपूर्वक विनती करुंगा कि ऐसे शब्दों को आत्मसात हम तो निश्चित करेंगे, आदरपूर्वक। लेकिन सत्तारुढ पार्टी भी कृपा, सरकार भी कृपा ऐसे शब्दों को आत्मसात अवश्य कर ले। जब ये सरकार विपक्ष में थी, ये सत्तारुढ पार्टी और अब जब ये सत्ता में है, इन्होंने हमेशा इसका हनन और उल्लंघन किया है और इसलिए इस प्रकार के उच्च विचार हमारे से पूछना उनको शोभा नहीं देता।
एक अन्य प्रश्न पर कि जम्मू-कश्मीर के डिप्टी ग्रेंड मुफ्ति ने कथित रुप से आपत्तिजनक बयान दिया है, उस पर क्या कहेंगे, डॉ. सिंघवी ने कहा कि ऐसे भद्दे कमेंट मुझे नहीं पता कौन क्या कह रहा है, मैं तो कमेंट के ऊपर जवाब दे रहा हूं, बड़ा सीधा। हमारा स्टैंड बड़ा स्पष्ट है कि जिस देश में गौरवशाली संवैधानिक लोकतंत्र हैं, वहाँ ऐसी भद्दी बातें करने का अधिकार किसी को नहीं है। इससे ज्यादा स्पष्ट मैं कुछ नहीं कह सकता, ना आपको है, ना मुझे है, ना इस समुदाय को है, ना उस समुदाय को है। मैं नहीं समझता कि किसी भी सही ग्रुप का ऐसा मत है, कोई व्यक्ति जो ऐसा कह देता है इस देश में तो आप उसको ये नहीं माने कि कसौटी है, मापदंड है या मीलपत्थर है। आज इस देश में संवैधानिक, न्यायपालिका सिद्धांत, कानून से चलने वाला देश है, इसलिए इस प्रकार के भद्दे कमेंट की आवश्यक नहीं है, समर्थन तो दूर का सवाल है, ये भर्त्सना करने योग्य है।
एक अन्य प्रश्न पर कि जयंत सिन्हा और गिरिराज सिंह की जो तस्वीरें सामने आई हैं, नितिन गडकरी ने उसको डिफेंड किया है, य़े कहते हुए कि वो किससे मिलें, किससे ना मिलें, ये उनकी प्राईवेट लाईफ है, क्या अब कोई दूसरा तय करेगा कि उनको किससे मिलना चाहिए, किससे नहीं, डॉ. सिंघवी ने कहा कि ये भी आपने अपने प्रश्न का अपने आप उत्तर दे दिया है, बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। अब उस श्रृंखला में जिसकी बहुत कड़ी निंदा होनी चाहिए, उसमें माननीय गडकरी जी भी जुड़ गए हैं। आप ये बताईए कि ये कोई आम आदमी हैं, ये कोई किसी A, B के घर में जा रहा है, सोशल कॉल करने, चाय पीने। केन्द्र के इतने उच्च स्तर के मंत्री एक ऐसे व्य़क्ति ऐसे परिवारों में जा रहे हैं, जो इतने भर्त्सना योग्य आरोपों से ग्रस्त हैं। उसके बाद आप तकनीकि explanation देंगे, सुझाव देंगे कि वो अभी आधे कनविक्ट हुए हैं, आधे नहीं हुए हैं, अपील में है, बेल पर हैं, फलाना-ढिंमकाना। क्य़ा आप समझते हैं कि इससे संकेत नहीं मिलता। आपको सीधा, मूल बात को आप भूल रहे हैं कि इस प्रकार की प्रक्रियाओं का पिछले चार वर्षों से इस देश में किस प्रकार सीधे रुप से, उससे कहीं ज्यादा परोक्ष रुप से समर्थन किया जा रहा है, प्रोत्साहित किया जा रहा है, उसको थपथपी दी जा रही है। ये शुक्र कीजिए कि ऐसे मंत्रिय़ों को इनाम नहीं दिया जा रहा है, इनके पदों को और उनको प्रमोशन नहीं दिया जा रहा है। हम तो इसी बात का शुक्र कर रहे हैं और आज इस देश में बार-बार हम यहाँ प्रेस वार्ता लेते हैं, जो वातावरण पैदा हुआ है, जिसको मैंने अंग्रेजी में इसी मंच से कहा था, It is not merely indirect support, not a wink and a nod. ये बताईए मुझे आप कि आप आरोपित हैं और ये मंत्री हैं, क्या पुलिस आपके ऊपर सही कार्यवाही करेगी अगर हर दिन आपसे मिलने आएंगे ये मंत्री? ये आपको क्या संभव लगता है, भारत के संदर्भ में सही लगता है? कोई केन्द्रीय मंत्री। तो ये सिर्फ तौर-तरीके होते हैं, संकेत देने के लिए। भर्त्सना योग्य हैं और हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। खैर केन्द्रीय मंत्री इन तीनों में उच्च स्तर के तो गड़करी जी हैं। हमने तो सुना है कि प्रधानमंत्री पीएमओ ऑफिस में थोड़ा उनके ऊपर ढील रहती है। ऐसे मंत्री अगर समर्थन करेंगे ऐसे व्यक्तियों का या ऐसे वक्तव्यों का तो कहानी बड़ी स्पष्ट है।
जीयो यूनिवर्सिटी पर पूछे गए एक अन्य प्रश्न के उत्तर में डॉ. सिंघवी ने कहा कि मैंने आपके प्रश्न का बड़ा स्पष्ट उत्तर दिया है। मेरा जो उत्तर है, वो किसी भी व्यक्ति विशेष, संस्था विशेष, कंपनी विशेष, एंटीटी विशेष से कोई संबंध नहीं रखता, बल्कि मेरा उद्देश्य ये है कि इस देश को सकारात्मक रुप से आगे बढ़ने के लिए अति आवश्यक है कि हम व्यक्ति विशेष, संस्था विशेष, कंपनी विशेष पर टिप्पणियाँ ना करें। जो आवश्यक, अति आवश्यक है वो एक ही चीज है कि केन्द्र सरकार और एचआरडी मिनिस्ट्री जो अभी तक हमें समझा नहीं पाई है, उसको तीन-चार जो कसौटियाँ हैं, आधार हैं, जाने-माने उच्च स्तरीय, शिक्षा के क्षेत्र में, उनके आधार पर ऐसी अर्जियों का अवलोकन करके पारित करना चाहिए, देना चाहिए, ग्रहण करना चाहिए। ये क्या कसौटियाँ हैं, हम सब जानते हैं। एक कसौटी है कि पूरी तरह से इन्फ्रास्ट्रक्चर व्यापक रुप से है या नहीं? दूसरी कसौटी है कि फैकेल्टी क्या उत्तीर्ण उच्चस्तरीय है कि नहीं? तीसरी कसौटी है कि जो पुराने चले आए, नए वालों की बात नहीं होगी, उनका रिसर्च आउटपुट क्या हुआ है अभी तक, कितने रिसर्च पेपर, कितने लेख निकले हैं? चौथी पुराने जो ऐसी संस्थाएं हैं कि क्या उनका स्तर है, क्या उनके मापदंड है और क्या उनका एक स्टेटस है, पूरे विश्व में, इत्यादी-इत्यादी। तो आज तक हमें केन्द्र सरकार और एचआरडी से इस प्रकार की ट्रांसपेरेंसी नहीं मिली है, ये अति आवश्यक है और निश्चित रुप से अगर इन कसौटियों के आधार पर वो पारित करेंगे तो हम समर्थन करेंगे।